Tuesday, March 12, 2013

आरक्षण और सम्मान साथ साथ नहीं मिल सकते! इसके लिए चाहिए त्याग ! !

जो लोग जिस पद की योग्यता रखते हों उन्हें उस हक़ से बंचित किए जाने को न्याय कैसे कहा जा सकता है ?

   जाति  के आधार पर आरक्षण क्यों ?  आरक्षण और सम्मान दोनों एक साथ नहीं मिल सकते!क्योंकि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं।त्याग करने से सम्मान होता है और जाति क्षेत्र समुदाय संप्रदाय आदि के नाम पर दूसरे के हक़ को अपने पक्ष कर लेना ही तो आरक्षण है ये सवर्णों के साथ एक प्रकार का छल है वैसे भी जिसका हक़ मारा जाएगा वह सम्मान कैसे कर पाएगा ?

       कुछ लोग हनुमान जी समझ कर बन्दर पूज लेते हैं गणेश जी की सवारी समझ कर चूहे को क्षमा कर देते हैं शिव जी से सम्बन्ध जोड़कर साँपों को पूज लेते हैं भैरव बाबा का प्रहरी समझ कर कुत्तों को दूध पिलाते हैं गायों को पूजते भी हैं रोटी भी खिलाते हैं हाथियों को गुड़  खिलाते हैं ये सब होता है किन्तु न जाने क्यों मनुष्यों के एक वर्ग की उपेक्षा करते हैं!

      एक दिन बनारस के अस्सी घाट पर कुछ विद्वान् महापुरुषों  के पास बैठकर मैंने यही प्रश्न कर दिया, तो उन्होंने उत्तर दिया कि हम उपेक्षा करते हैं ये सच है इसका ये कतई मतलब नहीं है कि उनकी तुलना पशुओं से की जाए !मेरी उपेक्षा का कारण कुछ और है मैंने पूछा कि वह क्या है तो कहने लगे कि वे पशु हमसे कुछ माँगते नहीं हैं कुछ छीनते  नहीं हैं हम पर या हमारे पूर्वजों पर शोषण करने के कोई झूठे आरोप भी नहीं लगाते हैं दूसरी ओर आरक्षण के नाम पर हमारा हक़ छीनने वाले लोग हैं जो हमारे पूर्वजों पर शोषण के झूठे आरोप लगाते हैं सबसे बड़ी बात यह है कि इनमें  जिस पद की योग्यता नहीं होती है आरक्षण के बल पर ये उन पदों पर बैठ जाते हैं इससे काम की गुणवत्ता में कमी आती है और भ्रष्टाचार भी बढता है इसलिए हम चाहते हैं कि बिना आरक्षण के जो लोग जिस योग्य हों उन्हें उन पदों पर बैठाया जाए वे किसी भी जाती वर्ग के क्यों न हों ,इससे काम की गुणवत्ता सुधरेगी,भ्रष्टाचार घटेगा समाज में स्वच्छ एवं सुन्दर वातावरण बनेगा !इसमें क्या बुराई है ?

    जहाँ तक योग्यता की बात है किसी भी जाति  संप्रदाय के लोग अर्थात जो भी स्वस्थ स्त्री पुरुष हैं वे ऐसा क्यों मान लेते हैं कि हम परिश्रम करके अपने बल पर अपनी उन्नति नहीं कर सकते!और यदि वास्तव में ये सच है कि वे मान ही बैठे हैं कि अपनी उन्नति हम स्वयं नहीं कर सकते इसके लिए उन्हें आरक्षण चाहिए ही तो इससे तो सिद्ध यही होता है कि सवर्णों के सामने हथियार उन्होंने स्वयं डाले हैं स्वयं पराजय स्वीकार की है तो इसमें सवर्णों का क्या दोष है ?और जब वे अपनी उन्नति अपने बल पर नहीं कर सकते तो जिन पदों पर आरक्षण से उनकी नियुक्ति होती होगी उसके साथ वे न्याय कैसे कर पा रहे होंगे सोचने वाली बात है !

          कुछ लोग कहते हैं कि जो खून सवर्णों में वो हममे है जैसे वे हैं वैसे हम हैं हम उनसे कम किस बात में हैं ?मैं निजी तौर पर ऐसा ही मानता हूँ किन्तु एक प्रश्न मन में बार बार कौंधता है कि यदि ये लोग वास्तव में सच बोल रहे हैं तो इन्हें आरक्षण जैसी वैसाखी का बहिष्कार करके अपने बल पर अपनी उन्नति करके  दिखा देना चाहिए कि देखो हम सवर्णों से किसी मामले में कम नहीं हैं!इस प्रकार से इन्हें अपना वजूद स्वयं बनाना चाहिए !स्वाभिमानी पुरुषों को दुनियाँ नमन करती है ।

     
   संख्या बल से भयभीत राजनैतिक दल अगर किसी को आरक्षण देते हैं उसका कारण वोट लोभ है। केवल वोट लोभ के कारण कुछ प्रतिभा सम्पन्न सवर्णों की प्रतिभा को कुचला जाना या उन्हें उनके अधिकार से बंचित किया जाना क्या ठीक है?खैर इसप्रकार से किसी  का हिस्सा तो हड़पकर किसी और को भले ही दिया जा सकता है किन्तु सम्मान नहीं !सम्मान स्वयं अर्जित करना पड़ता है उसके लिए त्याग और बलिदान दोनों करने पड़ेंगे वो आरक्षण में नहीं मिल सकता है !

     इसी देश का एक निरपराध नागरिक परिश्रम संघर्ष एवं समर्पण पूर्वक बड़ी आशा लगाकर उच्च शिक्षा अर्जित करता है उसके सम्पूर्ण परिवार का जो एक मात्र सहारा होता है जो जिस पद, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि का वास्तविक हक़दार होता है किन्तु उससे वह अवसर केवल इसलिए छीन लिया जाता है क्योंकि उसका जन्म सवर्ण परिवार में हुआ होता है उसे इस काल्पनिक अपराध का दंड दिया जाता है जिसका उसे पता ही नहीं है। उसके पूर्वजों ने किसी का शोषण कब किया था क्यों किया था कैसे किया था कितना किया था आदि बातों का कोई जवाब नहीं है सबसे बड़ा प्रश्न एवं आश्चर्य इस बात का है संख्या बल में जो वर्ग सवर्णों से काफी अधिक संख्या में हमेशा रहा है वह कहता है कि हमारा शोषण सवर्णों ने किया है कोई न्याय प्रिय व्यवस्था होती तो क्या उससे पूछा नहीं जाना चाहिए कि आपने अपना शोषण सहा क्यों आप की मज़बूरी क्या थी ?क्या वो वर्ग सवर्णों से डर गया था किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है जिसकी संख्या अधिक थी उसे डर कैसा ?यदि सवर्ण लोग शोषण जैसा कोई तथाकथित  अपराध कर भी रहे थे तो उसका विरोध उसी समय क्यों नहीं किया गया अब क्यों?जब न तो शोषण करने के तथा कथित आरोपी हैं और न ही शोषण कराने वाले लोग!उस युग के दोनों ही वर्ग जा चुके हैं अब उस बात के छेड़ने का औचित्य क्या है?इस प्रकार से सवर्णों के साथ जबर्दस्ती किए जा रहे इस अन्याय के समर्थन सभी राजनैतिक पार्टियाँ  सम्मिलित हैं कोई कुछ कम कोई कुछ अधिक!

     आगामी चुनावों में भी गम्भीरता पूर्वक विचार करते हुए सवर्णों की इस पीड़ा को समझने या इसे  दूर करने का प्रयास करता कोई राजनैतिक दल दिखाई   नहीं दे रहा है।ऐसी परिस्थिति में जिस वर्त्तमान तथाकथित लोकतान्त्रिक प्रणाली के किसी भी राजनैतिक दल के मन में सवर्णों के प्रति कोई गुंजाइस ही नहीं है उनके साथ भविष्य में भी कभी न्याय हो पाएगा फिलहाल इसकी अभी तो कोई आशा दिखाई भी नहीं दे रही है!सच्चाई यह है कि चुनावों में संख्या बल का महत्त्व होता है सवर्णों की संख्या कम तो है ही यह सच्चाई है इसलिए उन्हें कोई शोषक कहे अपराधी कहे कैसा भी अच्छा बुरा बर्ताव करे उनके पास सहने के अलावा आखिर विकल्प क्या है और जब सब कुछ सह कर ही रहना है तो सवर्णों को चुनावों में भाग क्यों लेना चाहिए ?क्या सवर्ण लोग गरीब नहीं हैं फिर भी उनके लिए कुछ नहीं है ऊपर से उनके पूर्वजों पर निराधार शोषण के आरोप लगाए  जा रहे रहे हैं! इतिहास के अपराधियों की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है सवर्णों के पूर्वजों को !

    यह सब सुन और सह कर भी सवर्ण क्यों गर्व करे ऐसे लोकतंत्र पर जब जिसमे सवर्ण वर्ग के साथ न्याय होता ही नहीं दिख रहा है और न ही आगे कोई आशा ही है !

     समाज के एक परिश्रमी वर्ग का नाम पहले तो दलित अर्थात दबा, कुचला टुकड़ा,भाग,खंड आदि रखने की साजिश हुई। ऐसे अशुभ सूचक नाम कहीं मनुष्यों के होने चाहिए क्या?  वो भी भारत वर्ष की जनसंख्या के बहुत बड़े वर्ग को दलित जैसे अपमानित करने वाले कुशब्दों से संबोधित किया जाने लगा है। आखिर क्या ऐसा दोष या दुर्गुण या कमजोरी दिखाई दी दलितों में ?क्या वो लाचार हैं, अपाहिज हैं, विकलांग हैं या वो परिश्रमी वर्ग  परिश्रम पूर्वक कमाई करके अपने  बच्चे नहीं पाल सकता है  क्या  ?


     आखिर गरीब सवर्ण भी अपनी मेहनत की कमाई से ही बच्चे पालते हैं ।उन बच्चों में अपने माता पिता के संघर्ष का स्वाभिमान होता है जिसके बल पर वे आगे बढ़ते हैं।सवर्णों में भी कुछ लोग ऐसे भी हैं जो संघर्ष नहीं करना चाहते वो बेशक दलित न कहे जाते हों किन्तु हालात उनके भी बहुत खराब हैं।कुछ लोग संघर्ष करके भी सफल नहीं हो पाते हैं उसमें वो भाग्य को कोसते हैं जबकि अन्य लोग सवर्णों को कोस कर सुख पाने का असफल प्रयास करते हैं।माना कि तथाकथित दलितों की अपेक्षा कुछ प्रतिशत अधिक लोग सवर्णों में सम्पन्न होगें किन्तु इसका मतलब यह भी नहीं है कि सारे सवर्ण  सम्पन्न ही हैं।ऐसा भी नहीं है कि सवर्णों का सम्पन्न वर्ग गरीब सवर्णों की कोई मासिक या अन्य प्रकार से कोई आर्थिक सहायता करता हो।     

     1947 में देश आजाद हुआ उसके पहले सैकड़ों वर्ष तक देश गुलाम रहा तो उन आक्रांताओं ने सवर्णों को कोई अतिरिक्त आर्थिक सहायता राशि नहीं दी थी जो तथाकथित दलितों को न मिली हो जिससे वे दलित हो गए।

       यदि वेद न पढ़ने देने के कारण वे तथाकथित दलित रह गए तो आरक्षण क्यों ?वेद  पढ़ने की सुविधा मुहैया करानी चाहिए आखिर वे भी कश्यप ऋषि की संताने हैं उन्हें वेद पढ़ना ही  चाहिए।

         अछूत माने जाने के कारण यदि वो तथाकथित दलित पीछे रह गए तो आरक्षण क्यों ?उन्हें अब  सवर्णों को अछूत घोषित करके उनसे रोटी बेटी का सम्बन्ध रोक देना चाहिए। आखिर अछूत घोषित किए जाने जैसे अपमान को  आरक्षण रूपी लालच में क्यों सह जाना ?

       इस युग में वो तपस्या भी कर सकते हैं अब तो कानून का राज है।अब उन्हें कौन रोक सकता है?किन्तु आरक्षण क्यों ?

         बनियों ने व्यापार करके अपने को आगे बढ़ाया यदि कोई और भी करता तो उस पर क्या रोक लगी थी ?

   दलित जैसे अपमानित करने वाले कुशब्द से मनुष्य जाति के किसी परिश्रमी वर्ग  को संबोधित किया जाना गंभीर राजनैतिक साजिश लगती है ।ये शब्द भिखारियों के उस कटोरे की तरह है जिसे लेकर वे भीख माँगनें का काम करते हैं।

      सरकार चाहे तो ऐसी नीतियाँ बनावे जिनका लाभ

अपने को गरीब समझने वाला हर व्यक्ति ले सके।किसी के मस्तक पर दलित या दरिद्र  लिखकर किसी का अपमान क्यों करना ?हो सकता है कोई अभी गरीब हो कुछ दिन बाद उसका काम चल निकले उसकी आर्थिक स्थिति ठीक हो जाए तो उसके मस्तक पर हमेंशा के लिए दलित या दरिद्र क्यों लिखना ?इस वर्ग के बहुत लोगों ने आरक्षण का लाभ लिये बिना ही अपनी आर्थिक स्थिति परिश्रम पूर्वक सुधारी है वो गर्व से जीवन यापन करते हैं।उन्होंने दालित्य की खाल को उतार कर फेंक दिया है।उन्हें किसी की कृपा पर नहीं अपने परिश्रम पर भरोसा होता है। 

 हमें चिंता है कि जिस देश के इतने बड़े वर्ग को दलित सिद्ध कर ही दिया जा चुका है।सवर्ण नाम के आवादी के छोटे से भाग को भी कब दलित सिद्ध करके इस देश को ही दलित अर्थात दबा कुचला देश घोषित करदिया जाय और  विश्व के विशाल मंच पर हमेंशा के लिए अपमानित कर दिया जाए तथा रईसत का पेटेंट वो देश अपने नाम करा लें ! इस विषय में ऐसी भ्रामक  बातें फैलाने के पीछे किसी का उद्देश्य आखिर क्या हो सकता है ? 

    दलित शब्द का अर्थ क्या होता है ये जानने के लिए मैंने शब्दकोश देखा जिसमें टुकड़ा,भाग,खंड,आदि अर्थ दलित शब्द के  किए गए हैं।मूल शब्द दल से दलित शब्द बना है।मैं कह सकता हूँ कि टुकड़ा,भाग,खंड,आदि शब्दों का प्रयोग कोई किसी मनुष्य के लिए क्यों करेगा?इसके बाद दल का दूसरा अर्थ समूह भी होता है।जैसे कोई भी राजनैतिक या गैर राजनैतिक दल, इन दलों में रहने वाले लोग दलित कहे जा सकते हैं।इसी दल शब्द से ही दाल  बना है।चना, अरहर आदि दानों के दल बना दिए जाते हैं जिन्हें दाल कहा जाता है।इस प्रकार दलित शब्द के टुकड़े,भाग,खंड,आदि और कितने भी अर्थ निकाले जाएँ  किंतु दलित शब्द का अर्थ दरिद्र या गरीब नहीं हो सकता है।

            राजनैतिक साजिश के तहत यदि इस शब्द का अर्थ अशिक्षित,पीड़ित,दबा,कुचला आदि  करके ही कोई राजनैतिक लाभ लेना चाहे तो यह शब्द ही बदलना पड़ेगा,क्योंकि इस शब्द का अर्थ शोषित,पीड़ित,दबा,कुचला आदि करने पर यह ध्यान देना होगा कि इसमें जिन जिन प्रकारों का वर्णन है वो सब कोई अपने आप से भले बना हो किंतु किसी के दलित बनने में किसी और का दोष  कैसे हो सकता है?यदि किसी और ने किसी का शोषण करके उसे दलित बनाया होता तो दलित की जगह दालित होता।जब बनाने वाला कोई और होता है तो आदि अच की वृद्धि होकर जैसे चना, अरहर आदि दानों के दल बना दिए जाते हैं जिन्हें दाल कहा जाता है क्योंकि चना आदि यदि चाहें भी कि वे अपने आप से दाल बन जाएँ  तो नहीं बन सकते।जैसेः- तिल से बनने के कारण उसे तैल कहा जाता है।बाकी सारे तैलों का तो नाम रख लिया गया है तैल तो केवल तिल से ही पैदा हो सकता है।ऐसे ही वसुदेव के पुत्र होने के कारण ही तो वासुदेव कहे गए। इसी प्रकार दलित की जगह दालित होता। चूँकि शब्द दलित है इसलिए किसी और का इसमें क्या दोष ?वैसे भी किसी ने क्या सोच कर दलित कहा है यह तो वही जाने किंतु इस ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि  में कम से कम हम तो किसी को दलित नहीं कह सकते ऐसा कहना तो उस ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि का अपमान है।

    आज दलित साहित्य या साहित्यकार,दलित विधायक ,दलित संसद ,दलित मंत्री ,दलितमुख्य मंत्री,दलित प्रधान मंत्री आदि कहा जाने लगा है तो दलित शब्द का अर्थ दबा कुचला शोषित पीड़ित नहीं है क्या ?क्योंकि मुख्य मंत्री,गृहमंत्री,प्रधान मंत्री आदि यदि स्वयं दलितअर्थात  दबे  कुचले  शोषित पीड़ित आदि कहेंगे तो देश उनसे क्या आशा करे ?और क्या वे विदेशों के ही महान मंचों पर देश का पक्ष गौरवान्वित कर पाएँगे ? क्या हमेशा से हमारे प्रति उपेक्षा का भाव रखने वाला  पश्चिमी जगत मौका मिलने पर इस बात के लिए चूक जाएगा ?क्या वह  कह सकता है कि तुम तो खुद दबे  कुचले  शोषित पीड़ित हो तुमसे क्या आशा?कैसे निपटोगे आतंकवाद से?तुम तो आतंकवादियों को सजा होने पर भी कठोर दंड देने से डरते हो । 

    इस लिए  हमारा इस देश के नीति नियामकों से निवेदन है कि दलित और अल्प संख्यक जैसे मनोबल गिराने वाले शब्दों का प्रयोग करने से न केवल बचना चाहिए अपितु देश के हर नागरिक को यह विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि सारा देश आपका है और आप सारे देश के हैं ।

          हम जाति, क्षेत्र,समुदाय,संप्रदाय ,लिंग आदि के नामपर यदि भेद भाव करते ही रहे तो स्वस्थ समाज की परिकल्पना कैसे की जा सकती है ?

 

         राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध  संस्थान की अपील 

   यदि किसी को केवल रामायण ही नहीं अपितु ज्योतिष वास्तु आदि समस्त भारतीय  प्राचीन विद्याओं सहित  शास्त्र के किसी भी  पक्ष पर संदेह या शंका हो या कोई जानकारी  लेना चाह रहे हों।

     यदि ऐसे किसी भी प्रश्न का आप शास्त्र प्रमाणित उत्तर जानना चाहते हों या हमारे विचारों से सहमत हों या धार्मिक जगत से अंध विश्वास हटाना चाहते हों या धार्मिक अपराधों से मुक्त भारत बनाने एवं स्वस्थ समाज बनाने के लिए  हमारे राजेश्वरीप्राच्यविद्याशोध संस्थान के कार्यक्रमों में सहभागी बनना चाहते हों तो हमारा संस्थान आपके सभी शास्त्रीय प्रश्नोंका स्वागत करता है एवं आपका  तन , मन, धन आदि सभी प्रकार से संस्थान के साथ जुड़ने का आह्वान करता है। 

       सामान्य रूप से जिसके लिए हमारे संस्थान की सदस्यता लेने का प्रावधान  है।

 

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