Sunday, April 14, 2013

श्रृंगार मन की बासना अर्थात सेक्स के स्तर को प्रकट करता है।

   अत्यधिक सज सँवर कर निकलने वाले सच्चे सौंदर्य साधक किसी छेड़ने वाले की प्रतीक्षा ही कहाँ कर पाते होंगे !क्या उनका कामोत्साह देखकर किसी को ऐसा नहीं लगता है ! 

      सेक्स की भूख श्रृंगार और शौकशान  से पता लगती है !आधे चौथाई कपड़े पहनने वाले ब्यूटीपार्लरों की श्रृंगार संस्कृति से संपन्न समाज चारित्रिक पवित्रता की बात कैसे कर सकता है !इतनी बुरी तरह सज सँवर कर आधे चौथाई कपड़ों में निकलने वाले सौंदर्य साधक लोग किसी के छेड़ने की प्रतीक्षा कर पाते होंगे क्या ?कुल मिलाकर खुद धक्का देकर औरों को बदनाम कर देने वालों से ईश्वर रक्षा करे !अपने मन की बासना औरों पर थोपना कहाँ तक उचित है !

        आश्रमों में रहने की परंपरा भारत वर्ष में युगों युगों पुरानी है।पहले लोग भगवान का भजन करने के लिए समस्त विषय बसनाओं एवं भोग सामग्रियों से  दूर रहकर वैराग्य पूर्ण जीवन जीते थे, किन्तु अब कलियुग के दुष्प्रभाव से वे भी प्रभावित हो रहे हैं।

    सहज श्रृंगार करना  तो साधु महात्माओं को छोड़कर और किसी के लिए भी ठीक होता है किन्तु अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार को भले लोग अच्छी निगाह से नहीं देखते हैं।जब सूर्पनखा अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार करके श्री राम के पास पहुँची- 

                   रुचिर रूप  धरि प्रभु पहिं जाई।

                   बोली   बचन   बहुत  मुसुकाई॥

   तो चूँकि शरीर का श्रृंगार मन की बासना को प्रकट करता है इसलिए उसके मन में तुरंत सेक्स की भयावनी भूख बढ़ने लगी और जिस किसी से भी विवाह करने को तैयार हो गई।पहले भी लंका में सेक्स की बासना से पागल राक्षसियाँ ऊट पटांग श्रृंगार करके बड़े बड़े काले काले आभूषण पहन कर बाल बिखेर लिया करती थीं वही सूर्पनखा ने भी किया था।  वह  अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार करके राम जी से पूछने लगी कि मैं आपको कैसी लगती हूँ ?श्री राम ने कहा कि तुम्हारा अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार देखकर लगता है कि तुम राक्षसी हो क्योंकि भली महिलाएँ ऐसा एवं इतना अमर्यादित श्रृंगार कभी नहीं पसंद करती हैं-

     त्वं हि तावन्मनोज्ञांगी राक्षसी प्रतिभासि में । 

      श्रृंगार के नाम पर ऐसा भयंकर स्वरूप धारण करना कहाँ तक न्यायोचित है ?जिससे उसकी पहचान किसी राक्षसी के रूप में की जाने लगे !

  किसी भी व्यक्ति का श्रृंगार उसके मन की बासना अर्थात सेक्स के स्तर को प्रकट करता है। सामान्य  श्रृंगार का मतलब सामान्य बासना,विशेष श्रृंगार का  मतलब विशेष बासना तथा अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार का मतलब अत्यधिक बासना होता है।शादी विवाह के अवसरों पर या करवा चौथ आदि पर्वों पर  ब्यूटीपार्लरों में या घरों में श्रृंगार के नाम पर स्त्री पुरुषों की जो  पेंट पोताई होती है वह अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार इसी श्रेणी में आता है।यह अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार भी पति पत्नी को परस्पर प्रसन्न करने या सुख देने के लिए हो वह तो अच्छा है किन्तु ऐसा अत्यधिक एवं अमर्यादित श्रृंगार करके घर से बाहर घूमने फिरने निकलना आखिर किसको पागल करने के लिए?इतना तो निश्चित है कि ऐसे लोगों को जिस बासनात्मक संतुष्ठि कि तलाश है वह घर में नहीं हो पा रही है इसीलिए तो घर से बाहर किसी और को पागल करने की तैयारी  की जा रही होती है। वैसे भी अत्यधिक श्रृंगार करके घर से निकलना शास्त्रों में ठीक नहीं माना गया है।इसका मतलब यही नहीं है कि किसी सुश्रृंगारित स्त्री को किसी पुरुष से भय होता है अपितु कई बार भूतों राक्षसों दैत्यों के दुर्व्यवहार की शिकार भी होती हैं ऐसी महिलाएँ! कंस की माता पवन रेखा इसीप्रकार सुश्रृंगारित होकर अकेली जंगल की ओर गई थी।वहाँ द्रुमलिक नामक दैत्य ने उस पर मोहित होकर उससे संसर्ग किया जिससे कंस का जन्म हुआ।इसलिए  गाँवों में आज भी महिलाएँ सुश्रृंगारित होकर अकेली खेत खलिहानों की ओर देर सबेर नहीं जाती हैं। इस तरह की परेशानी से शहरों में भी बहुत महिलाएँ परेशान हैं किन्तु वो किसी से कह नहीं पा रही हैं। ज्योतिष के कार्य से जुड़े होने के कारण मेरे पास कई ऐसे उदाहरण हैं किन्तु उन्हें सार्वजानिक करना उचित नहीं होगा। दूसरा उन्हें हम समाज में प्रमाणित नहीं कर सकते। जबकि घरों में यह बीमारी इस बीच काफी बढ़ी देखी सुनी जाती है। 

     इस प्रकार यह कुश्रृंगार समाज के सदाचरण को ध्वस्त करने वाला होता है।इससे सारी सामाजिक  मर्यादाएँ नष्ट भ्रष्ट होने लगती हैंऐसे अनियंत्रित समाज में चारों ओर सेक्स ही सेक्स  दिखता है सेक्स ही बिकता है सेक्स ही खरीदा जाता है सेक्स ही नाचा गाया खेला कूदा जाता है। कामेडी में हँसने हँसाने के लिए भी सेक्स से सम्बंधित द्वयर्थी व्यंग ही किए जाते हैं।सेक्स पर ही फिल्में सीरियल आदि सब कुछ बनते हैं सेक्स भड़काने सम्बंधित ही कपड़े पहने पहनाये बनाए तथा बेचे जाते हैं।यहाँ तक कि सेक्स  ही शिक्षा के रूप में भी पढ़ाया जाने लगता है।

    बाबा बैरागी आश्रमों को होटलों की तरह एवं अपने को मजनुओं की तरह  सजाने लगते हैं वहाँ त्याग तपस्या जप तप का कोई बातावरण नहीं रह जाता है।यहाँ तक कि  संन्यासियों के भी एक वर्ग में  सेक्स लोकप्रिय होने लगता है बाद में जिनके जैसे पोल खुलते जाते हैं वे वैसे सामने आते जाते हैं जिनकी जब तक मुँदी ढकी चलते रहती है तब तक तो वो अपने नाम के पहले कितने करोड़ भी श्री लगा लें किन्तु पोल खुलते ही श्री बिहीन होकर मारे मारे फिरने लगते हैं। ऐसे समय में केवल पैसा ही साथ देता है इसीलिए बाबाओं का भी पहला ध्यान पैसा और प्रभाव पर होता है।पहले कभी नाच गा कर भागवत कथा नहीं कही जाती थी किन्तु आज बैरागी भी तबला ठोक रहे हैं आखिर पैसे कमाने हैं न जाने कब पोल खुल जाए तब कोई चेला चेली साथ नहीं देता है। इसलिए पैसे कमाकर रख लेने चाहिए।जो जितना बड़ा मजनूँ वो उतना बड़ा कथा बाचक!इसीप्रकार लैलाओं ने भी कथा, कीर्तन, जागरण एवं चौकी आदि के व्यापार लिए  मोर्चा सँभाल रखा है।कई बार देखा गया है कि बिलकुल बैरागियों  जैसा  स्वरूप सजा कर चेला फाँसने एवं  पैसे  कमाने के बाद डाई, क्रीम, पाउडर लगाकर कथा कीर्तन करने लगे।बंधुओं!श्रृंगार और उनके रहन सहन में ऐसा बड़ा परिवर्तन अचानक कैसे आया?यहाँ इतना ही याद रखना है कि श्रृंगार मन की बासना को प्रकट करता है। इसलिए जैसे जैसे बासना की भूख बढ़ती चली गई वैसे वैसे श्रृंगार का स्तर भी उठता चला गया!

     पंडितों के जीवन में भी धर्म कर्म नियम संयम जप तप शास्त्रीय स्वाध्याय आदि से विहीन संध्यादि आह्निक कर्म को छोड़कर उनके भी आचार व्यवहार में  सेक्स और केवल  सेक्स भरता चला जा रहा है। सारे धर्मकर्मों का उपदेश केवल औरों के लिए अपने लिए केवल  सेक्स ! भागवत में कहा गया है कि कलियुग में पंडित लोग भैंसों की तरह सेक्स के लिए पागल घूमेंगे -

      पंडितास्तु  कलत्रेण रमन्ते महिषा इव !

  इसीप्रकार की सेक्स सम्मत  वेष भूषा को ही फैशन या आधुनिकता कहते हैं। जो इसप्रकार से नहीं रहता उसे घटिया टाईप का पुरानी विचारधारा वाला रूढ़िवादी दकियानूस आदि  कहा जाता है।वह जंगली या  ग्रामीण अथवा अज्ञानी आदि मानवों की तरह रहने वाला समझा जाता है।उस बेचारे को  भारतीय टाईप दिखने वाला मानकर उसपर आधुनिक फैशनाचार्य लोग हँसा करते हैं।

      समाज की आँखों में धूल झोंक कर जो जितना नंगा हो सके वो उतना फैशन वाला माना जाता है।कौन कितना  फैशनेबल  है इसका निर्णय सिर्फ विदेशों में होता है भारतीय लोगों में इतनी क्षमता कहाँ होती है कि वो फैशन विज्ञान को समझ सकें। जब कभी टी.वी.चैनलों पर फैशन जैसे गंभीर विषय पर चर्चा करनी होती है तो उसमें केवल ऐसे फैशन वैज्ञानिक सम्मिलित किए जाते हैं जिन्हें अमेरिका आदि दो चार बार जाने का अनुभव हो और वो वहाँ से यहाँ के नंगपना का भारतीयों के साथ तुलनात्मक विवेचन कर सकें।इन्हीं के बीच भारतीय वेष भूषा में लिपेटकर लाल पीला करके एक बिना पढ़ा लिखा मनुष्य शरीर केवल गाली खाने के लिए उन्हीं के बीच रख लिया जाता है जो ज्योतिषादि धंधे से जुड़ा होता है।वो भारत वा भारतीय संस्कृति की बेइज्जती केवल इसलिए करा रहा होता है कि इसी बहाने फ्री में अपना प्रचार प्रसार  हो जाएगा ! इसलिए उसे अपने एवं शास्त्र के उपहास की परवाह ही नहीं होती है।  

     कई बार देखा जाता है कि श्रृंगार और फैशन के नाम पर कुछ स्त्री पुरुष अपने कपड़े इस डिजाइन में सिलते या सिलवाते हैं कि उससे शरीर के वो अंग उस तरह से खुले या दिखाई पड़ते रहें जिन्हें देखकर सामने वाला बासना अर्थात सेक्स के लिए पागल हो उठे! 

     श्रृंगार के नाम पर ऐसा भयंकर स्वरूप धारण करना कहाँ तक न्यायोचित है ? पहले जमाने में इस तरह से पागल करने वाले अत्यधिक श्रृंगार की भावना केवल वेश्याओं अर्थात सेक्स वर्करों में ही देखी सुनी जाती थी  चूँकि  यह उनका व्यापार बढ़ाने में सहायक होता था क्योंकि उन्हें देखकर बासना अर्थात सेक्स के लिए पागल हुए लोगों से उनकी बासना शांत करने के बदले में  मोल तोल कर के  वे लोग मोटी रकम ऍठ लेते थे किंतु आज आम समाज में देखने वालों को  पागल कर देने वाला वो तथाकथित फैशन,वेषभूषा  या उस तरह के अमर्यादित श्रृंगारों  का औचित्य क्या है?और बासनात्मक पागल पन को शांत करने का उनके पास उपाय क्या है और ऐसा करने का उद्देश्य आखिर क्या है ?  

राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध  संस्थान की अपील 

   यदि किसी को केवल रामायण ही नहीं अपितु ज्योतिष वास्तु आदि समस्त भारतीय  प्राचीन विद्याओं सहित  शास्त्र के किसी भी  पक्ष पर संदेह या शंका हो या कोई जानकारी  लेना चाह रहे हों।

     यदि ऐसे किसी भी प्रश्न का आप शास्त्र प्रमाणित उत्तर जानना चाहते हों या हमारे विचारों से सहमत हों या धार्मिक जगत से अंध विश्वास हटाना चाहते हों या धार्मिक अपराधों से मुक्त भारत बनाने एवं स्वस्थ समाज बनाने के लिए  हमारे राजेश्वरीप्राच्यविद्याशोध संस्थान के कार्यक्रमों में सहभागी बनना चाहते हों तो हमारा संस्थान आपके सभी शास्त्रीय प्रश्नोंका स्वागत करता है एवं आपका  तन , मन, धन आदि सभी प्रकार से संस्थान के साथ जुड़ने का आह्वान करता है। 

       सामान्य रूप से जिसके लिए हमारे संस्थान की सदस्यता लेने का प्रावधान  है।

   

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