Monday, October 20, 2014

दिवाली मनाने की परंपरा कब से चली आ रही है जानिए आप भी !

 

आप भी जानिए कब से चली आ रही है दिवाली मनाने की परंपरा ! इस त्यौहार को 'कौमुदी महोत्सव' भी कहते हैं !
   बहुत लोगों को आज भी पता है कि दीपावली का पर्व श्रीराम के बन से वापस आने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है किंतु यह सच नहीं है। यदि ऐसा होता तो दीपावली में श्रीराम सीता लक्ष्मण आदि का पूजन करके उनकी ही आरती उतारी जाती। श्रीगणेश लक्ष्मी जी का इस पर्व से क्या संबंध? वैसे भी सभी धर्मकार्यों में  गणेश जी के साथ  तो  गौरी जी का पूजन होता है यहाँ  लक्ष्मी पूजन क्यों ? दूसरी बात गणेश जी के पूजन में तो लड्डुओं का भोग लगता है जबकि दीपावली में तो ऐसा नहीं होता है?दीपावली प्रकाश का पर्व है, अर्थात सारी पृथ्वी को प्रकाश से नहला देना जबकि श्री गणेश और लक्ष्मी जी की किसी अन्य पूजा में ऐसा होते नहीं देखा गया है। भारतीय शास्त्रीय संपदा के दर्पण में इस  कौमुदी महोत्सव (प्रकाश पर्व) अर्थात दीपावली पर्व का वर्णन किस प्रकार से है देखते हैं ?
     श्रीरामावतार से बहुत पहले इस पृथ्वी पर  राजाबलि का राज्य था वे बहुत प्रतापी राजा थे। भगवान बावन ने उनसे दान में सारा राज्य पाठ ले लिया था, बाद में उनका शरीर भी नाप लिया था यह कथा लगभग सभी लोग जानते हैं।

     बात यह थी कि दैत्य वंश में उत्पन्न राजा बलि ने संपूर्ण पृथ्वी मंडल को जीत लिया था, स्वर्ग तक उनका शासन चलता था। इंद्र आदि  देवता राज्य विहीन होकर भटक रहे थे। संपूर्ण ऐश्वर्य लक्ष्मी राजाबलि के आधीन थी। सभी देवता स्वर्ग छोड़कर भटक रहे थे। सभी देवताओं की प्रार्थना पर ही भगवान विष्णु ने बावन रूप में प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञ में जाकर सारा राजपाठ एवं स्वयं राजाबलि को भी दान की प्रतिज्ञा में बाँधकर अपने आधीन कर लिया था। बलि को समस्त परिवार के साथ सुतल लोक भेज दिया था। इस प्रकार जाते समय बलि से भगवान बावन ने पूछा आपकी कोई इच्छा हो तो कुछ माँग लो क्योंकि मेरा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता। इस पर बलि ने कहा महाराज मैं सुतल लोक को प्रसन्नता पूर्वक प्रस्थान कर रहा हूँ किंतु मेरी इच्छा थी कि एक दिन के लिए हर वर्ष हमारा राज्योत्सव  पृथ्वी पर मनाया जाता रहे और उस दिन सारी पृथ्वी को प्रकाश से पूरित कर दिया जाए। यह दिन बलि राजमहोत्सव के रूप में जाना जाए।
      भगवान बावन ने स्वीकार करते हुए कहा कि कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को यह पर्व सारे संसार में धूम धाम से मनाया जाएगा। उसी वरदान के प्रभाव से यह परंपरा आज तक प्रचलित है। दीपों के समूह से इस दिन आरती की जाती है इसीलिए इसे दीपावली कहते हैं । 
         दीपैर्नीराजनादत्र सैषा  दीपावली स्मृता। 
                                                           मत्स्य पुराण
   इसीदिन सारे देवताओं सहित लक्ष्मी जी को भी महाराज बलि के कैदखाने से छुड़ाकर भगवान विष्णु वापस क्षीर सागर ले आए थे।
यथा -

   बलिकारागृहाद्देवा      लक्ष्मीश्चापि      विमोचिता।
   लक्ष्म्याः   सार्द्धं  ततो देवा नीता  क्षीरादधौ   पुनः।।

   सभी देवता और लक्ष्मी आदि देवियॉं सभी लोग राजाबलि के कारागार में थे। इसीलिए देवताओं में अग्रगण्य श्री गणेश जी एवं देवियों में अग्रगण्य श्री लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है।

    यथा - 
           तत्र   संपूजयेल्लक्ष्मीं   देवांश्चापि प्रपूजयेत्।
           एवं तु सर्वथा कार्य  बलिराज्य   महोत्सवः ।।

   स्पष्ट लिखा है कि सभी प्रकार से सभी को प्रसन्न कर सभी के साथ मिलजुलकर सभी के लिए खुशी की कामना करते हुए संपूर्ण आनंद के साथ राजाबलि के राजमहोत्सव अर्थात दीपावली को मनावे।

       जो लोग ऐसा मानते हैं कि श्री राम के बन से वापस आने के उपलक्ष्य में दीपावली पर्व प्रारंभ किया गया था। इस विचार में थोड़े सुधार के साथ सोचने की आवश्यकता है। वस्तुतः बात यह थी कि जब श्रीराम बन चले गए थे, तब महाराज दशरथ की मृत्यु हो गयी थी, माताएँ विधवा हुईं भरत जी नंदी ग्राम में विरक्त होकर रहने लगे। सारी अयोध्या के लोग राजपरिवार की इस दुखद स्थिति से अत्यंत व्याकुल थे

            लागति अवध भयावनि भारी।
                     मानहुँ कालरात्रि अँधियारी।।
            घर मशान परिजन जुनुभूता।
                      सुत हित मीत मनहुँ  यमदूता।।
      शमशान की तरह घर तथा प्रजालोग भूत प्रेतों की तरह एवं संतान, हितकारी लोग और मित्र वर्ग यमराज के दूतों की तरह दुखदायी लग रहे थे।

      आप स्वयं सोचिए जिस घर परिवार राज्य आदि पर ऐसी विपत्ति का समय चल रहा हो वहाँ क्या होली क्या दिवाली आदि महोत्सव क्या और कोई हर्ष उल्लास का त्योहार? जब अपने मन में खुशी होती है तभी सब अच्छे लगते हैं। इसलिए संपूर्ण नगरवासियों ने राजपरिवार के दुख में दुखी रहकर चैदह वर्षों तक समस्त उत्सव रोक जैसे रखे थे किंतु प्रभु श्रीराम के बन से वापस आते ही उस वर्ष सभी त्योहार बड़े धूमधाम से मनाए गये थे मानो खुशियों का पारावार न रहा हो। इसमें भी प्रभु श्रीराम के बन से वापस आने के बाद पहला बड़ा त्योहार दीपावली ही पड़ा था। इसलिए खुशियों का समुद्र उमड़ना स्वाभाविक भी था।
                                        डॉ. शेष नारायण वाजपेयी
                                                                         संस्थापक  
                                                      राजेश्वरी प्राच्य विद्या शोध संस्थान